भले ही इतिहास के पन्नों में थोड़ी धुंधली पड़ गई हो, लेकिन उसके सबक आज भी उतने ही ज़रूरी हैं, खासकर हम भारतीयों के लिए। ज़रा सोचिए, जब देश पर कोई हमला होता है, तो हमारा पहला ख्याल क्या होता है? दुश्मनों को सबक सिखाना ? जोश से भरे हुए हम अक्सर ये भूल जाते हैं कि हर लड़ाई सिर्फ सीमा पर गोलीबारी से नहीं जीती जाती। कुछ लड़ाइयाँ ऐसी भी होती हैं जो बिना एक भी गोली चलाए जीत ली जाती हैं, लेकिन उनके पीछे की रणनीति को समझना बेहद ज़रूरी है।
आज हम एक ऐसी ही अनदेखी विजयगाथा को फिर से याद करेंगे, और देखेंगे कि कैसे हमारे दुश्मन, जो सीमा पर हमें सीधे टक्कर नहीं दे सकते, अब हमारे ही घर में घुसकर हमें कमज़ोर करने की साज़िश रच रहे हैं। यह सिर्फ़ इतिहास नहीं है, यह आज की सच्चाई है, जिससे हमें आँखें नहीं फेरनी चाहिए। तो तैयार हो जाइए, एक ऐसी कहानी सुनने के लिए जो आपको सोचने पर मजबूर कर देगी।
ऑपरेशन पराक्रम – वो अदृश्य विजय जिसने पाकिस्तान की कमर तोड़ दी
वर्ष 2001 में जब हमारे लोकतंत्र के मंदिर, संसद भवन पर कायराना हमला हुआ, तो पूरा देश आक्रोश से भर उठा था। यह सिर्फ़ एक इमारत पर हमला नहीं था, यह हमारे स्वाभिमान पर चोट थी, हमारे हौसले को तोड़ने की एक नापाक कोशिश थी। उस समय अटल बिहारी वाजपेयी जी के नेतृत्व वाली सरकार ने एक ऐतिहासिक और साहसी कदम उठाया। उन्होंने तय किया कि अब बहुत हो गया। पाकिस्तान समर्थित आतंकवादियों के इस दुस्साहस का जवाब देना ही होगा। और जवाब क्या दिया? भारत ने ‘ऑपरेशन पराक्रम’ लॉन्च किया।
क्या था ये ‘ऑपरेशन पराक्रम’? यह सिर्फ़ युद्ध की तैयारी नहीं थी, यह एक महायुद्ध की तैयारी थी। जम्मू-कश्मीर से लेकर गुजरात तक, भारत-पाकिस्तान की पूरी 3000 किलोमीटर की सीमा पर, भारतीय सेना के लाखों जवान और अत्याधुनिक सैन्य साजो-सामान तैनात कर दिए गए। टैंक, तोपें, मिसाइलें, सब कुछ फ्रंटलाइन पर। पूरा देश अपनी सेना के साथ खड़ा था। संदेश साफ़ था: अगर पाकिस्तान ने अब कोई भी हिमाकत की, तो उसे इसका करारा जवाब मिलेगा।
भारतीय सेना सीमाओं पर इस तरह से खड़ी हुई, जैसे आदेश मिलते ही हमला बोल देगी। सोचिए, एक साथ लाखों जवान, हज़ारों टैंक, तोपें, और बाकी सारा युद्धक सामान सीमा पर तैनात होना – यह कोई मामूली बात नहीं थी। यह दुनिया की सबसे बड़ी सैन्य तैनाती में से एक थी।
अब, जब भारत ने अपनी पूरी ताक़त सीमा पर झोंक दी, तो पाकिस्तान क्या करता? उसकी तो रूह काँप गई। उसे भी अपनी सेना सीमा पर भेजनी पड़ी। भारत की देखादेखी उसने भी मोर्चाबंदी की। लेकिन यहीं पर असली खेल शुरू हुआ। भारत की सेना जहाँ आधुनिक हथियारों से लैस, अच्छी तरह से पोषित और सुनियोजित थी, वहीं पाकिस्तान की सेना इन सब मामलों में कहीं पीछे थी।
दिसंबर 2001 से लेकर मार्च 2002 तक, लगभग 10 महीने तक दोनों देशों की सेनाएं आमने-सामने खड़ी रहीं। इस दौरान सीमा पर कोई बड़ा युद्ध नहीं हुआ, कोई गोली नहीं चली, लेकिन युद्ध की आशंका बनी रही। और यही आशंका पाकिस्तान के लिए सबसे बड़ा हथियार बन गई।
ज़रा सोचिए, बिना युद्ध लड़े ही पाकिस्तान की सेना की साँस फूलने लगी! क्यों? क्योंकि अपनी सेना को इतने लंबे समय तक सीमा पर बनाए रखने के लिए जो अतिरिक्त खर्च होता है, जो रसद चाहिए होती है, जो संसाधनों की ज़रूरत होती है, वो पाकिस्तान के पास थी ही नहीं। उसकी अर्थव्यवस्था पहले से ही कमज़ोर थी, और इस सैन्य तैनाती के बोझ ने उसकी कमर तोड़ दी। रिपोर्टों के मुताबिक, ऑपरेशन पराक्रम पर भारत का खर्च लगभग 6500 करोड़ रुपये आया था । लेकिन पाकिस्तान का खर्च उसके मुकाबले कहीं ज़्यादा था, खासकर उसकी जीडीपी के अनुपात में। बिना युद्ध लड़े ही पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था दिवालिया होने की कगार पर पहुँच गई।
पाकिस्तान के सैनिक थार के मरुस्थल की 51 डिग्री गर्मी से परेशान थे । उनके पास पर्याप्त साजो-सामान नहीं था, मनोबल गिरने लगा था। वे युद्ध के मोर्चे पर और अधिक दिन तक खड़े रहने की स्थिति में नहीं थे। उनकी सेना इतनी बुरी तरह पस्त हो चुकी थी, मानो युद्ध हार कर लौटी हो, जबकि युद्ध हुआ ही नहीं था! यह भारत की एक मास्टरस्ट्रोक रणनीति थी – सैन्य दबाव बनाकर दुश्मन की अर्थव्यवस्था को ध्वस्त कर देना।
यह एक ऐसी विजय थी जिसकी चर्चा कम ही होती है। हमने बिना खून बहाए पाकिस्तान को घुटनों पर ला दिया था। लेकिन क्या यह विजय भारतीयों को बताई गई?
कहानी यहीं खत्म नहीं होती, दोस्तों। जब भारतीय सेना सीमाओं पर पाकिस्तान की कमर तोड़ रही थी, तब भारत के अंदर ही एक और ‘इकोसिस्टम’ सक्रिय हो गया था। यह पाकिस्तान का पालतू ‘इकोसिस्टम’ था, जिसमें भारत-विरोधी ताकतें, मीडिया का एक बड़ा वर्ग, और कुछ राजनीतिक दल शामिल थे।
इस ‘इकोसिस्टम’ ने मिलकर एक नैरेटिव बनाना शुरू कर दिया। मीडिया में ऐसी रिपोर्ट्स छपने लगीं कि भारत की सेना गर्मी से बेहाल है, जवानों का मनोबल टूट रहा है। किसी सैनिक के साथ कोई छोटी-मोटी दुर्घटना हो जाए, तो उसे खूब बढ़ा-चढ़ाकर हेडलाइन बनाया जाता। मीडिया में खबरें छप रही थीं कि ऑपरेशन पराक्रम की क्या उपलब्धि हुई, इसका कितना खर्च आया, क्या ये कारगिल से भी ज़्यादा खतरनाक था सैनिकों के लिए (जबकि कारगिल में युद्ध हुआ था, पराक्रम में नहीं)।
टाइम्स ऑफ इंडिया, इंडिया टुडे, एनडीटीवी जैसे बड़े मीडिया हाउस इस ‘नौटंकी’ में शामिल हो गए। वे लगातार सरकार पर सवाल उठा रहे थे, सेना की तैनाती को बेकार बता रहे थे। वे कह रहे थे कि जब युद्ध लड़ना ही नहीं था, तो सेना को सीमा पर क्यों भेजा?
लेकिन वे यह नहीं बता रहे थे कि इस तैनाती का पाकिस्तान पर क्या असर हो रहा है। वे उस अदृश्य विजय की बात नहीं कर रहे थे जो भारत बिना युद्ध लड़े हासिल कर रहा था। वे पाकिस्तान की पस्त होती अर्थव्यवस्था, उसके टूटते मनोबल, उसकी लड़खड़ाती रणनीति को अनदेखा कर रहे थे।
उनकी मंशा क्या थी? क्या वे सचमुच भारतीय सैनिकों की चिंता कर रहे थे या भारत सरकार को कमज़ोर दिखाना चाहते थे? क्या वे पाकिस्तान के दबाव को कम करना चाहते थे? उस समय के मीडिया कवरेज को देखकर तो यही लगता है कि वे दुश्मन की भाषा बोल रहे थे। वे भारत की रणनीतिक जीत को एक विफलता के तौर पर पेश कर रहे थे।
यह सिर्फ उस समय की बात नहीं है, दोस्तों। यह ‘इकोसिस्टम’ आज भी सक्रिय है। यह हमेशा भारत के अंदरूनी मामलों में आग लगाने, देश को कमज़ोर करने और हमारे दुश्मनों को फायदा पहुंचाने की कोशिश करता रहता है। वे जानते हैं कि भारत को सीधा सैन्य युद्ध में हराना मुश्किल है, खासकर जब भारत आज एक बड़ी आर्थिक और सैन्य शक्ति बन रहा है। इसलिए उन्होंने अपनी रणनीति बदल दी है।
आज भारत की स्थिति 2001 की तुलना में बहुत ज़्यादा मज़बूत है। हम एक उभरती हुई आर्थिक और वैश्विक महाशक्ति हैं। हमारी सेना पहले से कहीं ज़्यादा आधुनिक और सक्षम है। हमारे पास परमाणु हथियार हैं, मिसाइलें हैं जैसे अग्नि मिसाइल । पाकिस्तान आज भी आर्थिक रूप से कमज़ोर और अंदरूनी कलह से जूझ रहा है। अगर वो आज भारत से लड़ने आया, तो पीछे से बलूचिस्तान और तालिबान जैसी ताकतें उसे घेरने के लिए तैयार बैठी हैं। चीन भी अमेरिका के साथ ट्रेड वॉर और अपनी अंदरूनी समस्याओं में उलझा हुआ है।
लेकिन यही बात हमारे दुश्मनों और उन्हें समर्थन देने वाली वैश्विक ताकतों को खटक रही है। अमेरिका नहीं चाहता कि भारत एक आर्थिक महाशक्ति बने। यूरोप नहीं चाहता। चीन तो कतई नहीं चाहता। और सबसे खतरनाक बात यह है कि उनके ‘एजेंट’ भारत के अंदर ही बैठे हैं।
ये कौन लोग हैं? ये वही ‘इकोसिस्टम’ है जो 2001 में सक्रिय हुआ था, लेकिन आज और भी ताकतवर और संगठित हो गया है। वे चाहते हैं कि भारत में अस्थिरता फैले, गृह युद्ध छिड़े, ताकि भारत का आर्थिक विकास पटरी से उतर जाए । वे चाहते हैं कि भारत युद्ध के ऐसे जाल में फंस जाए, जैसे रूस यूक्रेन के साथ फंस गया है । रूस जैसा शक्तिशाली देश आज यूक्रेन जैसे छोटे से देश पर अपने सारे संसाधन बर्बाद कर रहा है। पश्चिमी ताकतें यही चाहती हैं कि भारत भी पाकिस्तान के साथ ऐसे ही किसी लंबे संघर्ष में उलझ जाए, ताकि उसकी बढ़ती हुई ताकत को रोका जा सके।
कुछ समय पहले बांग्लादेश में हिंदुओं पर हमले हुए, मंदिर तोड़े गए। यह भारत को भड़काने की सीधी कोशिश थी, ताकि भारत प्रतिक्रिया करे और उपमहाद्वीप में तनाव बढ़े।
मणिपुर में जो हुआ, महीनों तक हिंसा जारी रही, यह भी देश के अंदर गृह युद्ध भड़काने की एक खतरनाक कोशिश थी।
इससे पहले CAA विरोधी प्रदर्शनों और किसान आंदोलन के दौरान भी ऐसी ताकतें सक्रिय थीं जिन्होंने इन आंदोलनों को हिंसक बनाने और देश में अराजकता फैलाने की कोशिश की। जबकी किसान तो सानती से अपनी मागे रखना चाहते है .
कुछ सप्ताह पहले ही अमेरिका ने पाकिस्तान को 400 मिलियन डॉलर की सैन्य सहायता दी । यह ऐसे समय में हुआ जब पाकिस्तान आर्थिक रूप से बेहद कमज़ोर है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री और सेना प्रमुख सऊदी अरब का दौरा करते हैं, शायद और पैसे और समर्थन मांगने के लिए । कुछ ही समय पहले हमास के आतंकवादी पीओके आए थे और पाकिस्तानी एजेंसियों से मिले थे। और एक सप्ताह पहले ही पाकिस्तान के सेना प्रमुख असीम मुनीर हिंदुओं और प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ ज़हर उगल रहे थे ।
इन सभी घटनाओं को अलग-अलग करके मत देखिए। यह सब एक बड़ी साज़िश का हिस्सा हैं। वैश्विक ताकते, पाकिस्तान, और उनके भारत के अंदर बैठे एजेंट मिलकर काम कर रहे हैं।
यह समझना ज़रूरी है कि सीमा पर युद्ध तो होना ही है, कभी न कभी। दुश्मन अगर अपनी हरकतों से बाज़ नहीं आएगा, तो सेना उसे सबक सिखाएगी ही। लेकिन कोई भी युद्ध अपनी शर्तों पर और अपनी सुविधा से होना चाहिए, न कि दुश्मन के बिछाए जाल में फंसकर। युद्ध निश्चित परिणामों के लिए लड़े जाने चाहिए, न कि केवल अपना गुस्सा शांत करने या जनभावना को संतुष्ट करने के लिए।
सरकार और सेना जानती है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश या किसी भी बाहरी दुश्मन के साथ क्या करना है। उनके पास सौ तरीके हैं। सिंधु नदी का पानी रोकना तो उनमें से केवल एक तरीका है। सर्जिकल स्ट्राइक जैसे तरीके हमने पहले भी अपनाए हैं। सरकार के पास पूरी जानकारी और रणनीति है। हमें उन पर भरोसा रखना चाहिए।
लेकिन दोस्तों, असली चुनौती सीमा के अंदर है। हमारे लिए केवल इतना पर्याप्त नहीं है कि हम सेना पर सब छोड़ दें। हमें अपने गली-मोहल्ले, अपनी कॉलोनी, अपनी सोसाइटी के आसपास बसे ‘शत्रुओं’ पर कड़ी नज़र रखनी होगी । ये वो लोग हैं जो हमारे समाज में ज़हर घोलते हैं, नफरत फैलाते हैं, झूठ और अफवाहें उड़ाकर लोगों को भड़काते हैं।
हमें उन राजनीतिक दलों पर भी नज़र रखनी होगी जो केवल वोट बैंक के लिए नीचता की सारी सीमाएं लांघ सकते हैं, जो देश के दुश्मनों के साथ खड़े हो सकते हैं, जो देश को कमज़ोर करने वाली ताकतों का साथ दे सकते हैं।
आपने देखा कैसे चैनलों, अखबारों से लेकर सोशल मीडिया तक पर एक पूरी फौज तैयार बैठी है। ये वो लोग हैं जो फेक न्यूज़ फैलाते हैं, प्रोपेगंडा करते हैं, और किसी भी बहाने भारत को बदनाम करने की कोशिश करते हैं। कुछ ‘भाड़े के टटू’ इसी बहाने पब्लिसिटी लूटने में लगे हैं, गलत बातें बोलकर, समाज में विभाजन पैदा करके।
सेना केवल सरहद का युद्ध जीत सकती है । देश के अंदर की रखवाली हमें और आपको ही करनी होगी। हमें जागरूक रहना होगा, एकजुट रहना होगा, और देश के अंदर बैठे दुश्मनों की हर साज़िश को नाकाम करना होगा। याद रखिए, एक मज़बूत और एकजुट समाज ही किसी भी बाहरी या भीतरी दुश्मन को हरा सकता है।
आज भारत के सामने चुनौतियाँ अनेक हैं, लेकिन सबसे बड़ी चुनौती हमारे अंदर बैठे ‘एजेंट्स’ हैं। हमें सतर्क रहना होगा और देश को कमज़ोर करने की हर साज़िश को पहचानना होगा।
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